यह धुआँ
सच ही बहुत कड़ुआ
घना काला
क्षितिज तक
दीवार फिर भी बन न पाएगा।
लाश सूरज की दबी
चट्टान के नीचे
सोच यह मन में
ठठा कर रात हँसती है
सुन अँधेरी कोठरी की
वृद्ध खाँसी को
आत्ममुग्धा - गर्विता यह
व्यंग्य कसती है
एक जाला-सा
समय की आँख में उतरा
पर उजाला
सहज ही यों छिन न पाएगा।
संखिया
कोई कुओं में डाल जाता है
हवा व्याकुल
गाँव भर की देह है नीली
दिशाएँ निःस्पंद सब बेहोश सीवाने
कुटिलता की गुंजलक
होती नहीं ढीली
पर गरुड़-से भैरवी के
पंख फैलेंगे
चुप्पियों के नाग का फन
तन न पाएगा।